Wednesday, 28 December 2016

इन तीन फलों का मिश्रण 20-20 साल पुरानी कब्ज भी ठीक करता है जरूर पढ़ें । अमृत तुल्य त्रिफला बनाने की विधि ।

इन तीन फलों का मिश्रण 20-20 साल पुरानी कब्ज भी ठीक करता है जरूर पढ़ें । अमृत तुल्य त्रिफला बनाने की विधि । मित्रो आयुर्वेद के अनुसार हमारे शरीर मे जितने भी रोग होते है वो त्रिदोष: वात, पित्त, कफ के बिगड़ने से होते है । वैसे तो आज की तारीक मे वात,पित कफ को पूर्ण रूप से समझना सामान्य वुद्धि के व्यक्ति के बस की बात नहीं है । लेकिन आप थोड़ा समझना चाहते है तो इतना जान लीजिये । सिर से लेकर छाती के मध्य भाग तक जितने रोग होते है वो कफ के बिगड़ने के कारण होते है ,और छाती के मध्य से पेट खत्म होने तक जितने रोग होते है तो पित्त के बिगड़ने से होते है और उसके नीचे तक जितने रोग होते है वो वात (वायु )के बिगड़ने से होते है । लेकिन कई बार गैस होने से सिरदर्द होता है तब ये वात बिगड़ने से माना जाएगा । ( खैर ये थोड़ा कठिन विषय है ) जैसे जुकाम होना ,छींके आना ,खांसी होना ये कफ बिगड़ने के रोग है तो ऐसे रोगो मे आयुवेद मे तुलसी लेने को कहा जाता है क्यों कि तुलसी कफ नाशक है , ऐसे ही पित्त के रोगो के लिए जीरे का पानी लेने को कहा जाता है क्योंकि जीरा पित नाशक है । इसी तरह मेथी को वात नाशक कहा जाता है लेकिन मेथी ज्यादा लेने से ये वात तो संतुलित हो जाता है लेकिन ये पित को बढ़ा देती है । महाऋषि वागभट जी कहते है की आयुर्वेद ज़्यादातर ओषधियाँ वात ,पित या कफ नाशक होती है लेकिन त्रिफला ही एक मात्र ऐसे ओषधि है जो वात,पित ,कफ तीनों को एक साथ संतुलित करती है वागभट जी इस त्रिफला की इतनी प्रशंसा करते है की उन्होने आयुर्वेद मे 150 से अधिक सूत्र मात्र त्रिफला पर ही लिखे है । की त्रिफला को इसके साथ लेंगे तो ये लाभ होगा त्रिफला को उसके साथ लेंगे तो ये लाभ होगा । त्रिफला का अर्थ क्या है ? त्रिफला = तीन फल कौन से तीन फल ?? 1) आंवला 2) बहेडा 3) हरड़ इन तीनों से बनता है त्रिफला चूर्ण । वागभट जी त्रिफला चूर्ण के बारे मे और बताते है कि त्रिफला चूर्ण मे तीनों फलो की मात्रा कभी समानय नहीं होनी चाहिए । ये अधिक उपयोगी नहीं होता (आज कल बाज़ारों मे मिलने वाले लगभग सभी त्रिफला चूर्ण मे तीनों फलों की मात्रा बराबर होती है ) त्रिफला चूर्ण हमेशा 1:2:3 की मात्रा मे ही बनाना चाहिए अर्थात मान लो आपको 200 ग्राम त्रिफला चूर्ण बनाना है तो उसमे हरड चूर्ण होना चाहिए = 33.33 ग्राम बहेडा चूर्ण होना चाहिए= 66.66 ग्राम और आमला चूर्ण चाहिए 99.99 ग्राम तो इन तीनों को मिलाने से बनेगा सम्पूर्ण आयुर्वेद मे बताई हुई विधि का त्रिफला चूर्ण । जो की शरीर के लिए बहुत ही लाभकारी है । वागभट जी कहते है त्रिफला का सेवन अलग-अलग समय करने से भिन्न-भिन्न परिणाम आते है । रात को जो आप त्रिफला चूर्ण लेंगे तो वो रेचक है अर्थात (सफाई करने वाला) पेट की सफाई करने वाला ,बड़ी आंत की सफाई करने वाला शरीर के सभी अंगो की सफाई करने वाला । कब्जियत दूर करने वाला 30-40 साल पुरानी कब्जियत को भी दूर कर देता है ये त्रिफला चूर्ण । और सुबह त्रिफला लेने को पोषक कहा गया , अर्थात अगर आपको पोषक तत्वो की पूर्ति करनी है वात-पित कफ को संतुलित रखना है तो आप त्रिफला सुबह लीजिये सुबह का त्रिफला पोषक का काम करेगा ! और अगर आपको कब्जियत मिटानी है तो त्रिफला चूर्ण रात को लीजिये त्रिफला कितनी मात्रा मे लेना है ?? किसके साथ लेना है रात को कब्ज दूर करने के लिए त्रिफला ले रहे है तो एक टी स्पून (आधा बड़ा चम्मच) गर्म पानी के साथ लें और ऊपर से दूध पी लें सुबह त्रिफला का सेवन करना है तो शहद या गुड़ के साथ लें तीन महीने त्रिफला लेने के बाद 20 से 25 दिन छोड़ दें फिर दुबारा सेवन शुरू कर सकते हैं । इस प्रकार त्रिफला चूर्ण आपके बहुत से रोगो का उपचार कर सकता है इसके अतिरिक्त अगर आप राजीव भाई द्वारा बताए आयुर्वेद के नियमो का भी पालन करते हो तो ये त्रिफला और भी अधिक और शीघ्र लाभ पहुंचाता है जैसे मेदे से बने उत्पाद बर्गर ,नूडल ,पिजा आदि ना खाएं ये कब्ज का बहुत बड़ा कारण है ,रिफाईन तेल कभी ना खाएं ,हमेशा शुद सरसों ,नारियल ,मूँगफली आदि का तेल खाएं ,सेंधा नमक का उपयोग करें ।

Wednesday, 21 December 2016

मंत्र के तीन तत्त्व होते हैं -शब्द, संकल्प और साधना,

👏👏 ओंकार में अकार, उकार, मकार, बिन्दु, अर्द्ध चन्द्र, निरोधिका, नाद, नादान्त शक्ति, व्यापिनी, समना तथा उन्मना इतने अंश हैं, ओंकार के ये कुल 12 अंश हैं, ओंकार के दो स्वरूप हैं, अकार, उकार एवं मकार अशुद्ध विभाग हैं, स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण इन तीन भूमिकाओं में इन तीन अवयवों का कार्य होता है।

जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति ये तीन अवस्थाएं प्रणव की पहली तीन मात्राओं में विद्यमान है, तुरीय या तुरीयातीत अवस्था चतुर्थ अवयव से शुरू होती है, अकार, उकार एवं मकार तीन शक्तियों के प्रतीक हैं, उकार ब्रह्मा का प्रतीक है, तथा मकार महेश का प्रतीक है, प्रणव के चतुर्थ अवयव ‘बिन्दु’ से लेकर उन्मना तक कुल 9 अंश प्रणव के शुद्ध विभाग हैं।

बिन्दु अर्द्धमात्रा रूपी अवयव है, बिन्दु में एक मात्रा का अर्द्धाशं है, अर्द्ध चन्द्र में बिन्दु का अर्द्धांश है तथा निरोधिका में अर्द्धचन्द्र अर्द्धांश है, इस प्रकार यह क्रम प्रतिपद में उसके पूर्ववर्ती मात्रा का अर्द्धांश बनता चला जाता है, ये अंश या मात्राएं किसकी हैं? ये वास्तव में मन की मात्राएं हैं, मन की गति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती चली जाती है।

उन्मना अमात्र है, उसकी कोई मात्रा नहीं होती क्योंकि वहां मन की समाप्ति हो जाती है, मन की मात्रा होती है, विशुद्ध चैतन्य की मात्रा नहीं होती, योगी का परम उद्देश्य है कि वह स्थूल मात्रा से क्रमशः सूक्ष्ममात्रा में होते हुए अमात्रक स्थिति में पहुंच जायें, उन्मना में न मन है, न मात्रा है, न काल है, न देश है, न देवता है, वह शुद्ध चिदानन्द- भूमि है, ओंकार की इन स्थितियों में एक विकास क्रम है।

नमः शिवाय’ नमन है, समर्पण है- अपने पूरे व्यक्तित्व का समर्पण, इससे अहंकार विलीन हो जाता है, जहां नमन होता है वहां अहंकार टिक नहीं सकता, अहंकार निःशेष और सर्वथा समाप्त, जहां शिव है वहां ममकार नहीं हो सकता, ममकार पदार्थ के प्रति होता है, शिव तो परम चेतन स्वरूप है, अपना ही चेतनरूप शिव है, चेतना के प्रति ममकार नहीं होता।

शिव के प्रति नमन्, शिव के प्रति हमारा समर्पण, एकीभाव जैसे-जैसे बढ़ता है, भय की बात समाप्त होती चली जाती है, भय तब होता है जब हमें कोई आधार प्राप्त नहीं होता, आधार प्राप्त होने पर भय समाप्त हो जाता है, साधना के मार्ग में जब साधक अकेला होता है तब न जाने उसमें कितने भय पैदा हो जाते हैं।

किन्तु जब ‘नमः शिवाय’ जैसे शक्तिशाली मंत्र का आधार लेकर चलता है तब उसके भय समाप्त हो जाते हैं, वह अनुभव करता है कि मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ शिव है, साधक के पास एक व्यक्ति ने कहा, आप अकेले हैं, मैं कुछ देर आपका साथ देने के लिए आया हूंँ, साधक ने कहा, मैं अकेला कहां था ? तुम आए और मैं अकेला हो गया, मैं मेरे प्रभु के साथ था।

‘नमः शिवाय’ शिव के प्रति नमन, शिव के प्रति समर्पण, शिव के साथ तादात्म्य है, यह अनुभूति अभय पैदा करती है, रमण महर्षि से पूछा गया- ज्ञानी कौन? ‘उत्तर दिया जो अभय को प्राप्त हो गया हो, ‘नमः शिवाय’ अभय के द्वारा ज्ञान की ज्योति जलाता है, अतः मंत्र सृष्टा ऋषियों ने ओऊम् के साथ नमः शिवाय संयुक्त कर ओऊम् रूपी ब्रह्म को ‘शिव’ रूपी जगत के साथ मिलाया है।

मंत्र के तीन तत्त्व होते हैं -शब्द, संकल्प और साधना, मंत्र का पहला तत्त्व है- शब्द, शब्द मन के भावों को वहन करता है, मन के भाव शब्द के वाहन पर चढ़कर यात्रा करते हैं, कोई विचार सम्प्रेषण का प्रयोग करे, कोई सजेशन या ऑटोसजेशन का प्रयोग करे, उसे सबसे पहले ध्वनि का, शब्द का सहारा लेना पड़ता है।

वह व्यक्ति अपने मन के भावों को तेज ध्वनि में उच्चारित करता है, जोर-जोर से बोलता है, ध्वनि की तरंगे तेज गति से प्रवाहित होती है, फिर वह उच्चारण को मध्यम करता है, धीरे-धीरे करता है, मंद कर देता है, पहले ओठ, दांत, कंठ सब अधिक सक्रिय थे, वे मंद हो जाते हैं, ध्वनि मंद हो जाती है, होठों तक आवाज पहुंचती है पर बाहर नहीं निकलती।

जोर से बोलना या मंद स्वर में बोलना- दोनों कंठ के प्रयत्न हैं, ये स्वर तंत्र के प्रयत्न हैं, जहां कंठ का प्रयत्न होता है वह शक्तिशाली तो होता है किन्तु बहुत शक्तिशाली नहीं होता, उसका परिणाम आता है किन्तु उतना परिणाम नहीं आता जितना हम इस मंत्र से उम्मीद करते हैं, मंत्र की परिणति या मूर्घन्य तब वास्तविक परिणाम आता है जब कंठ की क्रिया समाप्त हो जाती है, और मंत्र हमारे दर्शन केन्द्र में पहुंच जाता है।

यह मानसिक क्रिया है, जब मंत्र की मानसिक क्रिया होती है, मानसिक जप होता है तब न कंठ की क्रिया होती है, न जीभ हिलती है, न होंठ एवं दांत हिलते हैं, स्वर-तंत्र का कोई प्रकंपन नहीं होता, मन ज्योति केन्द्र में केन्द्रित हो जाता है, प्श्यन्ति वाक शैली में पूरे मंत्र को ललाट के मध्य में देखने का अभ्यास किया जाये, उच्चारण नहीं, केवल मंत्र का दर्शन, मंत्र का साक्षात्कार, मंत्र का प्रत्यक्षीकरण।

इस स्थति में मंत्र की आराधना से वह सब उपलब्ध होता है जो उसका विधान है, मानसिक जप के बिना मन की स्वस्थता की भी हम कल्पना नहीं कर सकते, मन का स्वास्थ्य हमारे चैतन्य केन्द्रों की सक्रियता पर निर्भर है, जब हमारे दर्शन केन्द्र और ज्योति केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं तब हमारी शक्ति का स्रोत फूटता है, और मन शक्तिशाली बन जाता है।

नियम है-जहां मन जाता है, वहां प्राण का प्रवाह भी जाता है, जिस स्थान पर मन केन्द्रित होता है, प्राण उस ओर दौड़ने लगता है, जब मन को प्राण का पूरा सिंचन मिल जाता है और शरीर के उस भाग के सारे अवयवों को, अणुओं और परमाणुओं को प्राण और मन का सिंचन मिलता है तब वे सारे सक्रिय हो जाते हैं, जो कण सोये हुए हैं, वे जाग जाते हैं।

चैतन्य केन्द्र को जाग्रत हुआ तब मानना चाहिये जब उस स्थान पर मंत्र ज्योति में डूबा हुआ दिखाई पड़ने लग जाये, जब मंत्र बिजली के अक्षरों में दिखने लग जाय तब मानना चाहिये वह चैतन्य केन्द्र जाग्रत हो गया है, मंत्र का पहला तत्त्व है- शब्द और शब्द से अशब्द, शब्द अपने स्वरूप को छोड़कर प्राण में विलीन हो जाता है, मन में विलीन हो जाता है तब वह अशब्द बन जाता है।

मंत्र का दूसरा तत्त्व है- संकल्प! साधक की संकल्प शक्ति दृढ़ होनी चाहिये, यदि संकल्प शक्ति दुर्बल है तो मंत्र की उपासना उतना फल नहीं दे सकती जितने फल की अपेक्षा की जाती है, मंत्र साधक में विश्वास की दृढ़ता होनी चाहिये, उसकी श्रद्धा और इच्छाशक्ति गहरी होनी चाहिये, उसका आत्म-विश्वास जागृत होना चाहिये, साधक में यह विश्वास होना चाहिये कि जो कुछ वह कर रहा है अवश्य ही फलदायी होगा, वह अपने अनुष्ठान में निश्चित ही संभवतः सफल होगा।

सफलता में काल की अवधि का अन्तर आ सकता है, किसी को एक महीने में, किसी को दो चार महीनों में और किसी को वर्ष भर बाद ही सफलता मिले, बारह महीने में प्रत्येक साधक को मंत्र का फल अवश्य ही मिलना चालू हो जाता है, संकल्प तत्त्व में श्रद्धा समन्वित है, श्रद्धा का अर्थ है- तीव्रतम आकर्षण, केवल श्रद्धा के बल पर जो घटित हो सकता है, वह श्रद्धा के बिना घटित नहीं हो सकता।

पानी तरल है, जब वह जम जाता है, सघन हो जाता है तब वह बर्फ बन जाता है, जो हमारी कल्पना है, जो हमारा चिन्तन है वह तरल पानी है, जब चिन्तन का पानी जमता है तब वह श्रद्धा बन जाता है, तरल पानी में कुछ गिरेगा तो वह पानी को गंदला बना देगा, बर्फ पर जो कुछ गिरेगा, वह नीचे लुढ़क जायेगा, उसमें घुलेगा नहीं, जब हमारा चिन्तन श्रद्धा में बदल जाता है तब वह इतना घनीभूत हो जाता है कि बाहर का प्रभाव कम से कम होता है।

मंत्र का तीसरा तत्त्व है- साधना! मंत्र शब्द भी है, आत्म विश्वास भी है, संकल्प भी है तथा श्रद्धा भी है, किन्तु साधना के अभाव में मंत्र फलदायी नहीं हो सकता, जब तक मंत्र साधक आरोहण करते-करते मंत्र को प्राणमय न बना दे, तब तक सतत साधना करता रहे, वह निरन्तरता को न छोड़े, योगसूत्र में पतंजलि कहते हैं- "दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारा सेवितः" ध्यान की तीन शर्त है- दीर्घकाल, निरन्तरता एवं निष्कपट अभ्यास।

साधना में निरन्तरता और दीर्घकालिता दोनों अपेक्षित है, अभ्यास को प्रतिदिन दोहराना चाहिये, आज आपने ऊर्जा का एक वातावरण तैयार किया, कल उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं तो वह ऊर्जा का वायुमण्डल स्वतः शिथिल हो जाता है, एक मंत्र साधक तीस दिन तक मंत्र की आराधना करता है और इकतीसवें दिन वह उसे छोड़ देता है, फिर बतीसवें दिन उसे प्रारम्भ करता है तो मंत्र साधना शास्त्र कहता है, कि उस मंत्र साधक की साधना का वह पहला दिन ही मानना चाहिये।

साधना का काल दीर्घ होना चाहिये, ऐसा नहीं कि काल छोटा हो, दीर्घकाल का अर्थ है- जब तक मंत्र का जागरण न हो जायें, मंत्र चैतन्य न हो, जो मंत्र शब्दमय था वह एक ज्योति के रूप में प्रकट न हो जायें, तब तक साधना चलती रहनी चाहिये, जब तक साधना में मंत्र के तीनों तत्त्वों का समुचित योग नहीं होता तब तक साधक को साधना की सफलता नहीं मिल सकती।

अध्यात्म की शैव-धारा में ओऊम् नमः शिवाय’ एक महामंत्र है, इस महामंत्र की सिद्धि जीवन की सिद्धि है, इस मंत्र की साधना से भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उपलब्धियां प्राप्त होती है, आवश्यकता है उसे अपना कर अनुभव करने की, ऋषियों और महात्माओं के मुखारविन्द से, स्वाध्याय एवं स्वानुभूति से जो निष्कर्ष आया है उन्हीं का निरूपण करने की चेष्टा मैंने की है, तीन दिनों से लगातार प्रातः की पोस्ट से आत्मियता के भाव के साथ आप तक पहुँचाया है, इसमें किसी प्रकार का अहंभाव एवं कृत्रिमता का संयोग नहीं है।

जय महादेव!
ओऊम् नमः शिवाय्!

Monday, 19 December 2016

मन चंगा तो कठौती में गंगा

🚣🎪🚣हर हर गंगे 🚣🎪🚣
🚣मन चंगा तो कठौती में गंगा🚣
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एक बार की बात है। एक परिवार में पति पत्नी एवं बहू बेटा याने चार प्राणी रहते थे । समय आराम से बीत रहा था । चंद वर्षो बाद सास ने गंगा स्नान करने का मन बनाया । वो भी अकेले पति पत्नी । बहू बेटा को भी साथ ले जाने का मन नहीं बनाया । उधर बहू मन में सोच विचार करती है कि भगवान मेंने ऐसा कौनसा पाप किया है जो में गंगा स्नान करने से वंचित रह रही हूँ। सास ससुर गंगा स्नान हेतु काशी के लिए रवाना होने की तैयारी करने लगे तो बहू ने सास से कहा कि माँ सा आप अच्छी तरह गंगा स्नान एवं यात्रा करिएगा । इधर घर की चिंता मत करिएगा । मेरा तो अभी अशुभ कर्म का उदय है वरना में भी आपके साथ चलती ।
सारी तैयारी करके दोनों काशी के लिए रवाना हुए। मन ही मन बहू अपने कर्मों को कोस रही थी, कि आज मेरा भी पुण्य कर्म होता तो में भी गंगा स्नान को जाती। खेर मन को ढाढस बंधाकर घर में रही। उधर सास जब गंगाजी में स्नान कर रही थी । स्नान करते करते घर में रखी अलमारी की तरफ ध्यान गया और मन ही मन सोचने लगी कि अरे अलमारी खुली छोडकर आगई कैसी बेवकूफ औरत हूँ बंद करके नहीं आई । पीछे से बहू सारा गहना निकाल लेगी । यही विचार करते करते स्नान कर रही थी कि अचानक हाथ में पहनी हुई अँगूठी हाथ से निकल कर गंगा में गिर गई । अब और चिंता बढ़ गई की मेरी अँगूठी गिर गई । उसका ध्यान गंगा स्नान में न होकर सिर्फ घर की अलमारी में था । उधर बहू ने विचार किया कि देखो मेरा शुभ कर्म होता तो में भी गंगा जी जाती । सासु माँ कितनी पुण्यवान है जो आज गंगा स्नान कर रही है । ये विचार करते करते एक कठौती लेकर आई और उसको पानी से भर दिया और सोचने लगी सासु माँ वहाँ गंगा स्नान कर रही है और में यहाँ कठौती में ही गंगा स्नान कर लूँ । यह विचार करके ज्योंही कठौती में बैठी तो उसके हाथ में सासु माँ के हाथ की अँगूठी आ गई और विचार करने लगी ये अँगूठी यहाँ कैसे आई ये तो सासु माँ पहन कर गई थी । इतना सब करने के बाद उसने उस अँगूठी को अपनी अलमारी में सुरक्षित रख दी और कहा कि सासु माँ आने पर उनको दे दूँगी। उधर सारी यात्रा एवं गंगा स्नान करके सास लौटी तब बहू ने उनकी कुशल यात्रा एवं गंगा स्नान के बारे में पूछा -
तो सास ने कहा कि बहू सारी यात्रा एवं गंगा स्नान तो की पर मन नहीं लगा ।
बहू ने कहा कि क्यों माँ ? मेंने तो आपको यह कह कर भेजा था कि आप इधर की चिंता मत करना में अपने आप संभाल लूँगी ।
सास ने कहा कि बहू गंगा स्नान करते करते पहले तो मेरा ध्यान घर में रखी अलमारी की तरफ गया और ज्योंही स्नान कर रही थी कि मेरे हाथ से अँगूठी निकल कर गंगाजी में गिर गई। अब तूँ ही बता बाकी यात्रा में मन कैसे लगता।
इतनी बात बता ही रही थी कि बहू उठकर अपनी अलमारी में से वह अँगूठी निकाल सास के हाथ में रख कर कहा की माँ इस अँगूठी की बात कर रही है क्या ?
सास ने कहा - हाँ ! यह तेरे पास कहाँ से आई इसको तो में पहन कर गई थी । और मेरी अंगुली से निकल कर गंगाजी मे गिरी थी ।
बहू ने जबाब देते हुई कहा कि - माँ जब गंगा स्नान कर रही थी तो मेरे मन में आया कि देखो माँ कितनी पुण्यवान है जो आज गंगा स्नान हेतु गई । मेरा कैसा अशुभ कर्म आड़े आरहा था जो में नहीं जा सकी । इतना सब सोचने के बाद मेंने विचार किया कि क्यों में यही पर कठौती में पानी डाल कर उसको ही गंगा समझकर गंगा स्नान कर लूँ । जैसे मेंने ऐसा किया और कठौती में स्नान करने लगी कि मेरे हाथ में यह अँगूठी आई । में देखा यह तो आपकी है और यह यहाँ कैसे आई । इसको तो आप पहन कर गई थी। फिर भी में आगे ज्यादा न सोचते हुई इसे सुरक्षित मेरी अलमारी में रख दी ।
सास ने बहू से कहा - बहू में बताती हूँ कि यह तुम्हारी कठौती में कैसे आई ।
बहू ने कहा - माँ कैसे ?
सास ने बताया - बहू देखो "मन चंगा तो कठौती में गंगा" । मेरा मन वहाँ पर चंगा नहीं था । में वहाँ गई जरूर थी परंतु मेरा ध्यान घर की आलमारी में अटका हुआ था और मन ही मन विचार कर रही थी की अलमारी खुली छोडकर आई हूँ कहीं बहू ने आलमारी से मेरे सारे गहने निकाल लिए तो। तो बता ऐसे बुरे विचार मन में आए तो मन कहाँ से लगनेवाला और अँगूठी जो मेरे हाथ से निकल कर गिरी वह तेरे शुद्ध भाव होने के कारण तेरी कठौती में निकली ।
इस कथा का सार यह ही है कि जीवन में पवित्रता निहायत जरूरी है। वर्तमान में हर प्राणी का मन अपवित्र है, हर व्यक्ति का चित्त अपवित्र है। चित्त और चेतन में काम, क्रोध, मोह, लोभ जैसे विकार इस तरह हावी है कि हम उन्हें समझ नहीं पा रहे हैं । उस विकृति के कारण हमारा जीना बहुत दुर्भर हो रहा है। बाहर की गंदगी को हम पसंद नहीं करते, वह दिखती है, तत्क्षण हम उसे दूर कने के प्रयास में लग जाते हैं । हमारे भीतर में जो गंदगी भरी पड़ी है उस और हमारा ध्यान नहीं जाता है। आज जिस पवित्रता की बात की जानी है, उस पवित्रता का सम्बद्ध बाहर से नहीं है, भीतर की पवित्रता से है।

दिल को  छू लेने वाली ऐसी  37-लाइनें

*दिल को  छू लेने वाली ऐसी  37-लाइनें*
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1. *क़ाबिल लोग न तो किसी को दबाते हैं और न ही किसी से दबते हैं*।

2. *ज़माना भी अजीब हैं, नाकामयाब लोगो का मज़ाक उड़ाता हैं और कामयाब लोगो से जलता हैं* ।

3. *कैसी विडंबना हैं ! कुछ लोग जीते-जी मर जाते हैं*, *और कुछ लोग मर कर भी अमर हो जाते हैं* ।

4. *इज्जत किसी आदमी की नही जरूरत की होती हैं. जरूरत खत्म तो इज्जत खत्म* ।

5. *सच्चा चाहने वाला आपसे प्रत्येक तरह की बात करेगा*. *आपसे हर मसले पर बात करेगा लेकिन*
*धोखा देने वाला सिर्फ प्यार भरी बात करेगा*।

6. *हर किसी को दिल में उतनी ही जगह दो जितनी वो देता हैं.. वरना या तो खुद रोओगे, या वो तुम्हें रूलाऐगा* ।

7. *खुश रहो लेकिन कभी संतुष्ट मत रहो* ।

8. *अगर जिंदगी में सफल होना हैं तो पैसों को हमेशा जेब में रखना, दिमाग में नही* ।

9. *इंसान अपनी कमाई के हिसाब से नही,अपनी जरूरत के हिसाब से गरीब होता हैं* ।

10. *जब तक तुम्हारें पास पैसा हैं, दुनिया पूछेगी भाई तू कैसा हैं* ।

11. *हर मित्रता के पीछे कोई न कोई स्वार्थ छिपा होता हैं ऐसी कोई भी मित्रता नही जिसके पीछे स्वार्थ न छिपा हो* ।

12. *दुनिया में सबसे ज्यादा सपने तोड़े हैं इस बात ने,कि लोग क्या कहेंगे* ।

13. *जब लोग अनपढ़ थे तो परिवार एक हुआ करते थे, मैने टूटे परिवारों में अक्सर पढ़े-लिखे लोग देखे हैं* ।

14. *जन्मों-जन्मों से टूटे रिश्ते भी जुड़ जाते हैं बस सामने वाले को आपसे काम पड़ना चाहिए* ।

15. *हर प्रॉब्लम के दो सोल्युशन होते हैं..*
*भाग लो.. (run away)*
*भाग लो..(participate)*
*पसंद आपको ही करना हैं* ।

16. *इस तरह से अपना व्यवहार रखना चाहिए कि अगर कोई तुम्हारे बारे में बुरा भी कहे, तो कोई भी उस पर विश्वास न करे* ।

17. *अपनी सफलता का रौब माता पिता को मत दिखाओ, उन्होनें अपनी जिंदगी हार के आपको जिताया हैं* ।

18. *यदि जीवन में लोकप्रिय होना हो तो सबसे ज्यादा ‘आप’ शब्द का, उसके बाद ‘हम’ शब्द का और सबसे कम ‘मैं’ शब्द का उपयोग करना चाहिए* ।

19. *इस दुनिया मे कोई किसी का हमदर्द नहीं होता, लाश को शमशान में रखकर अपने लोग ही पुछ्ते हैं.. और कितना वक़्त लगेगा* ।

20. *दुनिया के दो असम्भव काम- माँ की “ममता” और पिता की “क्षमता” का अंदाज़ा लगा पाना* ।

21. *कितना कुछ जानता होगा वो शख़्स मेरे बारे में जो मेरे मुस्कराने पर भी जिसने पूछ लिया कि तुम उदास क्यों हो* ।

22. *यदि कोई व्यक्ति आपको गुस्सा दिलाने मे सफल रहता हैं तो समझ लीजिये आप उसके हाथ की कठपुतली हैं* ।

23. *मन में जो हैं साफ-साफ कह देना चाहिए Q कि सच बोलने से फैसलें होते हैं और झूठ बोलने से फासलें* ।

24. *यदि कोई तुम्हें नजरअंदाज कर दे तो बुरा मत मानना, Q कि लोग अक्सर हैसियत से बाहर मंहगी चीज को नजरंअदाज कर ही देते हैं* ।

25. *संस्कारो से भरी कोई धन दौलत नही है* ।

26. *गलती कबूल़ करने और गुनाह छोङने में कभी देर ना करना, Q कि सफर जितना लंबा होगा वापसी उतनी ही मुशिकल हो जाती हैं* ।

27. *दुनिया में सिर्फ माँ-बाप ही ऐसे हैं जो बिना स्वार्थ के प्यार करते हैं* ।

28. *कोई देख ना सका उसकी बेबसी जो सांसें बेच रहा हैं गुब्बारों मे डालकर* ।

29. *घर आये हुए अतिथि का कभी अपमान मत करना, क्योकि अपमान तुम उसका करोगे और तुम्हारा अपमान समाज करेगा* ।

30. *जो भाग्य में हैं वह भाग कर आयेगा और जो भाग्य में नही हैं वह आकर भी भाग जायेगा* ।

31. *हँसते रहो तो दुनिया साथ हैं, वरना आँसुओं को तो आँखो में भी जगह नही मिलती* ।

32. *दुनिया में भगवान का संतुलन कितना अद्भुत हैं, 100 कि.ग्रा.अनाज का बोरा जो उठा सकता हैं वो खरीद नही सकता और जो खरीद सकता हैं वो उठा नही सकता* ।

33. *जब आप गुस्सें में हो तब कोई फैसला न लेना और जब आप खुश हो तब कोई वादा न करना (ये याद रखना कभी नीचा नही देखना पड़ेगा)* ।

34. *मेने कई अपनों को वास्तविक जीवन में शतरंज खेलते देखा है* ।

35. *जिनमें संस्कारो और आचरण की कमी होती हैं वही लोग दूसरे को अपने घर बुला कर नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं* ।

36. *मुझे कौन याद करेगा इस भरी दुनिया में, हे ईशवर बिना मतल़ब के तो लोग तुझे भी याद नही करते* ।

37. *अगर आप किसी को धोखा देने में कामयाब हो जाते हैं तो मान कर चलना की ऊपर वाला भी आपको धोखा देगा क्योकि उसके यहाँ हर बात का इन्साफ जरूर होता है* ।

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