Tuesday, 10 January 2017

आस्तिकवाद मत के अनुयायी सृष्टि के चक्रों में विश्वास

आस्तिकवाद मत के अनुयायी सृष्टि के चक्रों में विश्वास करते हैं, जहां आत्मा एक अबौद्धिक वस्तु के रूप में केवल भगवान की इच्छा पर निर्भर होकर कर्म के आधार पर शरीर विशेष की ओर आकर्षित होती है, उदाहरण के लिये कौशितकी उपनिषद कहता है- कृमि, कीड़े-मकौड़े, मछली, पंक्षी, सिंह, सुअर, सांप या मानव जैसे जीवन का विभिन्न अवस्था में जन्म लेना व्यक्ति द्वारा किए गए कार्यों और ज्ञान द्वारा निर्धारित होता है।

चंडोज्ञ उपनिषद ने अच्छे जन्म, जैसे कि आध्यात्मिक परिवार में जन्म, अर्थात (ब्राह्मण जाति) या बुरा जन्म, जैसे कि कुत्ता या सुअर के रूप में जन्म लेने के बीच के अंतर को बताता है, इस प्रकार, विभिन्न तरह के जीवन क्यों दिखाई पड़ते हैं, विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधों से लेकर अलग-अलग तरह के पशुओं जैसे जैविक विकास के अलग-अलग स्तरों के विशाल क्षेत्र का चरित्र-चित्रण करने के लिए कर्म का सिद्धांत आता है

और मानव जैसे एक ही तरह की प्रजाति के विभिन्न सदस्यों के अंतर को भी यह स्पष्ट करता है, इस प्रकार, इस तरह के बहुत सारे उपनिषदों का कहना है कि कर्म के आधार पर जाति विशेष में जन्म होता है, कहा जाता है जिसने अच्छे कर्म कियें हैं, उनका जन्म धर्मपरायण परिवार में होता है, जो कि ब्राह्मण जाति का ही पर्याय है, अच्छे कर्म करनेवालों का जन्म धर्मपरायण परिवार में होता हैं, जहां उसके भविष्य की नियति वर्तमान जीवन में उसके आचरण और किए गए कार्यों द्वारा निर्धारित होगा।

गीता में कृष्ण ने कहा कि ब्राह्मण के अभिलक्षण उसके आचरण द्वारा निर्धारित होते हैं, न कि जन्म द्वारा. गीता का एक पद्य इस तत्‍व की व्याख्या करता है- हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शुद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा वि‍भक्त किए गए हैं, गीता में इसी मत की आगे और भी जिस तरह चर्चा की गयी है, माधवाचार्य वर्ण (हिंदू धर्म में) की अवधारणा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यह शब्द हिंदू समाज में गुण (भाव) और कर्म (कार्य) के आधार पर चार सामाजिक श्रेणियों में विभाजन को निर्दिष्ट करता है,

इसे जन्म द्वारा नहीं, बल्कि आत्म की प्रकृति द्वारा परिभाषित किया गया है, उदाहरण के लिए, एक आत्मा जिसमें ब्राह्मण की प्रकृति है शुद्र और इसके विपरीत रूप में जन्म ले सकता है, जाति व्यवस्था जन्म द्वारा तय होती है, वास्तव में जाति शब्द समुदाय विशेष के लिए निर्दिष्ट है, न कि वर्ण के लिये वर्ण पूरी तरह से आत्मा की स्थिति को परिभाषित करती है, उदाहरण के लिए, ब्राह्मण के रूप में वर्गीकृ‍त आत्मा पांडित्य की ओर प्रवृत होती है।

क्षत्रिय आत्मा व्यवस्था की ओर और शुद्र आत्मा सेवा करने की ओर प्रवृत होती है, इस प्रकार, उन्होंने जाति व्यवस्था की नई व्याख्या दी, जैसा कि उनका मानना है कि किसी व्यक्ति की जाति उसके स्वभाव से संबंधित है, न कि उसके जन्म से, श्रीकृष्ण के अनुसार जन्म वर्ण द्वारा निर्धारित नहीं होता है, धर्मपरायण प्रबुद्ध चांडाल (जातिच्युत) एक अज्ञानी ब्राह्मण से कहीं अधिक श्रेष्ठ है।

पिछले जीवन में किए गए कर्म का प्रभाव या उनके कारण कष्ट भोगना पड़ता है, और उसे अगले जीवन में एक दूसरे देह में वास करना होता है, कर्म के सीमित अर्थ के अलावा अक्सर क्रिया और प्रतिक्रिया के व्यापक अर्थ में भी इसका उपयोग होता है, इस प्रकार, हिंदू धर्म में कर्म का अर्थ कोई गतिविधि, कोई काम करना या भौतिकवादी कार्य करना हो सकता है।

विशिष्ट संयोजन के साथ इसका अक्सर एक विशेष अर्थ होता है, जैसे कि कर्म योग या कर्म-कांड का अर्थ क्रमश: योग या कार्य या भौतिकवादी गतिविधि की कार्यप्रणाली है, इसके अलावा एक अन्य उदाहरण नित्य कर्म का है, जिसका वर्णन संस्कार के रूप में किया जाता है, इसे हिंदू हर दिन करते हैं जैसे कि सांध्यवंदना, इसमें गायत्री मंत्र का जाप होता है, अन्य उपयोगों में शामिल है, जैसे कि उग्र कर्म जैसा भाव जिसका अर्थ दुखद, अनैतिक श्रम है।

सिव सम को रघुपति ब्रतधारी ।
बिनु अघ तजी सती असि नारी ।।

भगवान शिव और माता सती देवी की असीम महिमा बड़े ही सुंदर ढंग से प्रतिपादित की है, भगवान शिव के बिना पुनर्जन्म और कर्म की यह पोस्ट जो विगत पांच दिनों से लिख रहा हूँ वह पूर्ण नहीं हो सकती, क्योंकि संसार में सब धर्मों का सार, सब तत्त्वों का निचोड़ भगवत्प्रेम ही निश्चय किया गया है, भगवान परब्रह्म में दृढ़ निष्ठा का हो जाना ही परम विशिष्ट धर्म है और भगवान शिव ने तो अपने अनुभव से इसी को सार समझकर जगत को नि:सार निश्चित कर लिया था।

इसी प्रेम प्रभाव की महिमा से सती ऐसी नारी में भी उनकी आसक्ति न थी, जिस समय त्रेतायुग में कुंभज ऋषि के आश्रम से वे सती के साथ कैलाश को लौट रहे थे, उसी समय सीता हरण के कारण पत्नी वियोग में दु:खित मानव लीला करते हुए श्रीरामजी के उन्हें दर्शन हुआ और उन्होंने "जय सच्चिदानंद परधामा" कहकर उनको प्रणाम किया, इस परसती को यह संदेह हुआ कि नृपसुत को ‘सच्चिदानंद परधामा’ कहकर सर्वज्ञ शिव ने क्यों प्रणाम किया।

भगवान शिवजी ने सती को भगवत अवतार की बात अनेक प्रकार से समझायी, परंतु उन्हें बोध न हुआ, शिवजी ने अपने हृदय में ध्यान धरकर देखा कि इसमें भगवान् विष्णु की माया की प्रेरणा हो रही है, क्योंकि जब प्रभु की जो इच्छा है उसी में सती को प्रेरित कर देना हमारा भी धर्म है, भगवान शिव के विषय में यह प्रमाण है कि जिस भावी में हरि की इच्छा शामिल है, उसे हृदय में विचार कर भगवान शिव कदापि उसके मेटने की इच्छा नहीं करते बल्कि वैसा ही होने में आप भी सहायक हो जाते हैं।

सच है, सुजान भक्तों की भक्ति का इसी से परिचय मिलता है, वस्तुत: बात भी यहीं है, भगवान शिव की भक्ति से भक्तों को होने वाले होनी-अनहोनी को मेटने का सामर्थ्य भी तो शिवजी के प्रताप से ही मिलता है, भगवान् भोलेनाथ विधि-अंकों के मिटाने का सामर्थ्य तो रखते हीं थे, यह अघटित-घटन की सामर्थ्य भगवान की दया से और भगवद् भक्ति के प्रताप से भक्तों को ही हो सकता है।

अत: उन भक्तों का यह सिद्धांत रहता है कि ‘हम तो तुम्हारी खुशी में खुश हैं, और कुछ नहीं चाहते- राजी हैं हम उसी में, जिसमें तेरी रजा है, सती को परीक्षा लेने का आदेश करते समय भगवान शिव ने इतना चेता दिया था- "करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी" परंतु सती ने परीक्षा लेने के लिए श्रीसीता जी का ही वेष धारण किया, जिसमें शिवजी ने अपनी स्वामिनी और माता की दृढ़ निष्ठा कर रखी थी । भगवान भक्तवत्सल ने उनकी बुद्धि में प्रेरणा की कि सदा के लिए त्याग की जरूरत नहीं है।

केवल इसी जन्म में सती को त्याग करना संकल्प ठीक है, जिसमें उन्होंने सीता का वेश धारण किया है, अतएव ऐसा ही संकल्प भगवान शिव ने किया, जिससे दोनों काम हो गये, न तो सदा के लिए सती का त्याग करना पड़ा और न उस शरीर से प्रीति ही रखी गयी, भगवान शिव के इस रहस्य से यह उपदेश मिलता है, कि जब कोई धर्मसंकट आ पड़े तो सच्चे हृदय से हरि स्मरण करने से ही उसके निर्वाह की राह निकल आयेगी।

अतएव जब केवल एक जन्म के लिए सती का त्याग हो गया, तब सती को अपनी करनी पर अत्यंत पश्चात्ताप हुआ और उन्होंने भी उन्हीं परमप्रभु श्री रामजी की हृदय से प्रतिपत्ति ली और कहा- हे दीनदयाल! मेरा यह शरीर शीघ्र छूट जाये, जिससे मैं दु:ख सागर को पार कर पुन: भगवान शिव जी को प्राप्त कर सकूं, भगवत्कृपा से योग लग गया और अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाकर योगाग्नि से शरीर को त्यागकर सती ने हिमाचल के घर पार्वती के रूप में पुनर्जन्म धारण कर भगवान शिव को पुन: पतिरूप में प्राप्त कर लिया।

।।हर हर महादेव।।
।।ॐ नमः शिवाय।।

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